10.1 – कमोडिटी का सुपरस्टार

अगर आपको सिर्फ एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय कमोडिटी को चुनना हो जिसमें कि स्टॉक मार्केट की तरह उतार चढ़ाव होता हो तो वह कच्चा तेल होगा। नीचे पर चार्ट पर नजर डालिए, आपको समझ में आ जाएगा कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं – 

आपको दिखेगा- $140 तक की तेज उछाल, उसके बाद एक गिरावट और फिर $110 तक की बढ़त फिर से वापस $30 तक गिरावट। कच्चा तेल का चार्ट आपके अंदर की सारी भावनाओं को सामने ले आता है, जैसा कि एक अच्छी फिल्म में होता है। जैसा कि आप जानते हैं कि यह एक अंतरराष्ट्रीय कमोडिटी है। लाखों लोग इसमें ट्रेड करते हैं और इसी वजह से इसमें ट्रेड करना काफी जटिल यानी पेचीदा है।

तो यहां कच्चे तेल में हो क्या रहा है? कच्चा तेल $115 से $28 तक क्यों गिरा? इस तरह का भयानक डर बाजार में क्यों फैला? कच्चे तेल में अब क्या हो रहा है? अब यह किधर जा रहा है? यह सब समझने के लिए हमें थोड़ा सा इतिहास में जाना पड़ेगा – 2014 और 2015 की घटनाओं में। 

इस अध्याय में हम यही करेंगे। इस अध्याय को ठीक से समझने के लिए पीछे जाते हैं और 2015 के पहले 6 महीनों को देखते हैं कि उस समय क्या हो रहा था?

10.2 – संकट का पुनरावलोकन 

जनवरी 2014 में कच्चा तेल $110 प्रति बैरल था जो कि जनवरी 2016 में $28 प्रति बैरल तक गिर गया। ब्रेंट क्रूड के इतिहास में पिछले 5 सालों में शायद यह अब तक की सबसे बड़ी गिरावट थी। वैसे इस गिरावट से कई कंपनियों को और कई देशों को बहुत फायदा हुआ। लेकिन कच्चा तेल पैदा करने वाली अर्थव्यवस्थाओं पर इसका बहुत बुरा असर पड़ा। किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि कच्चा तेल 75% तक गिर जाएगा। तो क्या यह इस गिरावट का सबसे निचला स्तर यानी बॉटम था? ये किसी को नहीं पता, लेकिन यह गिरावट जितनी तेज थी उसको देख कर यह भरोसा नहीं होता कि यहां बॉटम बन चुका है या गिरावट अपने निचले स्तर तक पहुंच गई है। 

तो, वास्तव में हुआ क्या था? 

कच्चे तेल में आई इस गिरावट को समझने के लिए हमें यह समझना होगा कि कच्चे तेल का कारोबार कैसे होता है और इस गिरावट के पहले तक इस धंधे को कैसे चलाया जाता था? इस चर्चा से आपको कच्चे तेल व्यापार के बारे में काफी कुछ समझने को मिल सकता है। कच्चे तेल का उत्पादन करने वाले देश हर दिन कई मिलियन बैरल कच्चा तेल, अमेरिका, चीन, भारत और यूरोप के अलग-अलग देशों को एक्सपोर्ट करते हैं। कच्चा तेल निकालने वाले देशों को दो समूहों में बांटा जाता है 

  1. ऑर्गेनाइजेशन आफ पैट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज यानी ओपेक (OPEC) जिनमें सऊदी अरब, कतर, कुवैत और UAE आदि शामिल हैं।
  2. कच्चे तेल का उत्पादन करने वाले दूसरे देश जैसे ब्राजील, कनाडा, रूस, मैक्सिको, नॉर्वे आदि जो कि OPEC का हिस्सा नहीं है और इसलिए उनको नॉन ओपेक देश कहा जाता है। 

इन दोनों समूहों के देशों यानी ओपेक और नॉन ओपेक देशों के द्वारा करीब 90 मिलियन बैरल यानी 9 करोड़ बैरल कच्चा तेल हर दिन निकाला जाता है। नीचे के टेबल में आप यह देख सकते हैं कि ओपेक देश कितने तेल का उत्पादन करते हैं और नॉन ओपेक देश कितने कच्चे तेल का उत्पादन करते हैं –

कारण

हर देश में कच्चे तेल का उत्पादन करने का खर्च अलग होता है। कच्चे तेल के उत्पादन पर उनका खर्च कितना होता है यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस देश की आर्थिक हालत कैसी है और वह किस तरह की टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर रहा है। उत्पादन का खर्च भले ही सबके लिए अलग-अलग हो लेकिन कच्चे तेल की कीमत हमेशा बाजार तय करता है। ऐसे में हर देश की हमेशा ये कोशिश होती है कि वो कच्चा तेल उस कीमत पर बेच सके जहां उसे अपने उत्पादन खर्च से ज्यादा पैसा मिल सकें। कोई भी देश ब्रेक इवन प्वाइंट (प्रति बैरल उत्पादन खर्च) से कम की कीमत पर कच्चा तेल बेचने को तैयार नहीं होता क्योंकि उससे उनके देश के बजट पर बुरा असर पड़ता है। नीचे के टेबल में आप OPEC देशों के कच्चे तेल उत्पादन का प्रति बैरल खर्च यानी उनका ब्रेकइवन प्वाइंट देख सकते हैं –

देश प्रति बैरल ब्रेकइवन प्वाइंट*
इरान $130.7
अल्जीरिया $130.5
नाइजीरिया $122.5
वेनेजुएला $117.5
सऊदी अरब $106.0
इराक $100.6
UAE $77.3
कतर $60.0
कुवैत $54.0

इस कीमत के आधार पर आप देख सकते हैं कि अगर 2013 तक कच्चा तेल 100 डॉलर के ऊपर बिक रहा था तो यह कच्चे तेल का उत्पादन करने वाले इन देशों के लिए बहुत ही अच्छी स्थिति थी। लेकिन पिछले कुछ समय में हुए बदलाव ने कच्चे तेल के कारोबार से जुड़ी चीजों को काफी हद तक बदल दिया है। खासकर इन तीन मुख्य घटनाओं ने कच्चे तेल की कीमतों पर काफी असर डाला

  1. अमेरिकी शेल ऑयल – अमेरिकी शेल ऑयल एक ऐसा कच्चा तेल है जो ऑयल शेल (एक तरीके का पत्थर) से निकलता है। यह कच्चे तेल की तरफ का ही उत्पाद है, इसे निकालने की टेक्नोलॉजी विकसित हो चुकी है और इसका उत्पादन का खर्च काफी कम होता है। जिसकी वजह से इस तरह के तेल का उत्पादन काफी बढ़ गया और बाजार में सस्ता कच्चा तेल मिलने लगा है। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि अमेरिका के इस शेल ऑयल का इतना भंडार है कि वह कई पीढ़ियों तक चलेगा। अमेरिका के 2 राज्यों-टेक्सस (Texas) और नॉर्थ डकोटा (North Dakota) में होने वाले इस शेल ऑयल के उत्पादन से अमेरिका में  कच्चे तेल का आयात कम हो गया है। जिसकी वजह से कच्चे तेल की कीमतों में काफी गिरावट की शुरुआत हुई।
  2. तेल उत्पादक देशों के सामूहिक प्रयास की कमी – अमेरिका में शेल ऑयल का उत्पादन बढ़ने की वजह से कच्चे तेल में गिरावट आई और ऐसे में उम्मीद थी कि कच्चे तेल का उत्पादन करने वाले देश अपना उत्पादन कम करेंगे जिससे कि सप्लाई और डिमांड के बीच में एक संतुलन बना रहे। लेकिन ओपेक देश ना ही अपने सदस्यों को और ना ही गैर ओपेक देशों को इस बात के लिए समझा पाए कि कच्चे तेल का उत्पादन कम कर के तेल की कीमत को गिरने से रोका जा सकता है। वास्तव में ये माना गया कि कच्चे तेल का उत्पादन कम करना, कच्चे तेल के उत्पादन करते रहने के मुकाबले ज्यादा महंगा पड़ेगा। 
  3. चीन का असर – चीन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में से एक है जो कि लौह अयस्क, कोयला, कच्चा तेल जैसी बहुत सारी अंतर्राष्ट्रीय कमोडिटी का आयात करता है। वास्तव में 2013 में चीन ने कच्चे तेल के आयात के मामले में अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया था, लेकिन अब ऐसा महसूस होने लगा है कि चीन की अर्थव्यवस्था उतनी तेजी से नहीं बढ़ रही है जैसा कि पहले बढ़ रही थी। जिसकी वजह से अंतर्राष्ट्रीय कमोडिटी की मांग कम हो गयी है। इस वजह से भी कच्चे तेल की कीमत में आ रही बढ़त पर रोक लगी। 
  4. बाजार की हालत – इन तीनों वजह से कच्चे तेल में एक बिकवाली आई और इस बिकवाली में आग में घी वाला काम किया ट्रेडरों ने जिन्होंने कच्चे तेल के कॉन्ट्रैक्ट में काफी शार्ट पोजीशन बना रखी थी।

आमतौर पर जब कच्चा तेल गिरता है तो अमेरिकी डॉलर उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले मजबूत होता है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि जब कच्चे तेल की कीमत बढ़ती है तो अमेरिका का करंट अकाउंट डेफिसिट बढ़ता है (याद रहे कि अमेरिका मध्य एशिया से कच्चा तेल आयात करता है), ऐसा होना अमेरिकी डॉलर के लिए एक अच्छा संकेत नहीं होता है। इसी वजह से, जब इसका उल्टा होता है यानी कच्चा तेल गिरता है तो अमेरिकी डॉलर मजबूत होता है। इस तरह से डॉलर और कच्चे तेल के बीच में उलटा यानी इनवर्स संबंध है। याद कीजिए कि सन 2008 में जब कच्चा तेल अपने सबसे ज्यादा ऊंचाई पर यानी $148 की ऊंचाई पर पहुंच गया था तो अमेरिकी डॉलर यूरो के मुकाबले 1.6 पर था। 

रूस का असर 

गैर ओपेक देशों में से रूस कच्चे तेल का सबसे बड़ा उत्पादक और एक्सपोर्टर यानी निर्यातक है। रूस का फेडरेशन करीब करीब 40% कच्चे तेल का एक्सपोर्ट करता है। कच्चे तेल में आई गिरावट की वजह से रूस की अर्थव्यवस्था काफी कमजोर पड़ गई। जो तीन कारण रूस के विरुद्ध काम कर रहे थे, उनमें से दो कच्चे तेल से जुड़े हुए थे 

  1. तेल का कीमत- रूस की अर्थव्यवस्था को ठीक रखने के लिए कच्चे तेल की कीमत $105 से $107 के आसपास होनी चाहिए। इसलिए जब कच्चा तेल $50 तक पहुंच गया तो रूस के बजट पर इसका काफी असर पड़ा 
  2. रूबल का संकट- याद रखिए कि रूस एक उभरती अर्थव्यवस्था है। कच्चे तेल की कीमत में गिरावट आने की वजह से रूस की करेंसी रूबल यूएस डॉलर के मुकाबले काफी कमजोर हो गई। ये कमजोरी इतनी बढ़ी कि रूस के सेंट्रल बैंक को ब्याज दरें 7.5% तक बढ़ानी पड़ी, जिससे कि रूबल को और ज्यादा टूटने से बचाया जा सके। 
  3. क्रिमिया का प्रभाव – रूस को यूक्रेन को लेकर जो रवैया था, उसे देखते हुए कई पश्चिमी देशों ने रूस के ऊपर प्रतिबंध लगा दिए। इस वजह से रूस का दूसरे देशों पूंजी लेना मुश्किल हो गया। ऐसा तब हुआ जब रूस को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। 

इसी समय सीरिया में एक अलग से संकट पैदा हो गया, साथ ही दूसरे कई और स्थानीय मुद्दे भी पैदा हो गए। इन सबकी वजह से रूस में हालात सुधरने के उम्मीद और भी कम हो गई।

भारत के आर्थिक हालात का असर

अगर ऊपर से देखा जाए तो कच्चे तेल में आने वाली गिरावट भारत जैसे देश के लिए काफी फायदेमंद है क्योंकि इस वजह से पेट्रोलियम पर दी जाने वाली सब्सिडी कम होगी। भारत कच्चे तेल का काफी आयात करता है (कुल जरूरत का करीब करीब दो तिहाई) और इसकी वजह से ऑयल इंपोर्ट पर उसे काफी खर्च करना पड़ता है। इसीलिए कच्चे तेल की कीमत गिरने का मतलब है कि फिस्कल डेफिसिट में कमी आएगी, इन्फ्लेशन में कमी आएगी और ब्याज दरें कम हो सकेंगी। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ये सारी चीजें अच्छी हैं। 

लेकिन कच्चे तेल में गिरावट का एक और आयाम है। जहां कच्चे तेल की कीमत कम होने से आयात का खर्च गिरेगा, वहीं एक्सपोर्ट से होने वाली हमारी कमाई पर भी असर पड़ेगा। भारत से होने वाला ज्यादातर एक्सपोर्ट UAE, अमेरिका, सऊदी अरब, कुवैत, ईरान, चीन जैसे देशों को होता है जिनमें से ज्यादातर देशों की अर्थव्यवस्था कच्चे तेल पर निर्भर करती है। कच्चे तेल की कीमत गिरने की वजह से इन देशों के खर्च करने की क्षमता घटेगी और इसलिए भारत कs एक्सपोर्ट पर इसका असर पड़ेगा। 

अगर आप अक्टूबर 2014 में RBI द्वारा जारी किए गए इंपोर्ट और एक्सपोर्ट के डेटा को देखें तो इसमें ये तथ्य साफ दिखेगा- जहां कच्चे तेल के आयात पर होने वाला खर्च 19% कम हुआ है, हमारा एक्सपोर्ट भी 5% कम हुआ है। साफ है कि कच्चे तेल की कीमत में कमी से उतना बड़ा फायदा नहीं हुआ जितना दिखता है। कच्चे तेल की गिरावट क्या असर डाल सकती है इसका एक नमूना 6 जनवरी 2015 को हमें देखने को मिला जब NSE निफ्टी 255 प्वाइंट यानी 3% गिरा और बाजार में एक हाहाकार मच गया।

भारतीय कंपनियों पर असर

सरकारी ऑयल कंपनियों जैसे एचपीसीएल, बीपीसीएल, इंडियन ऑयल आदि को कच्चे तेल की कीमतों में आई गिरावट का सीधा फायदा मिलता है। कच्चे तेल की कीमत में गिरावट की वजह से इन कंपनियों को वर्किंग कैपिटल की जरूरत कम पड़ती है। बीपीसीएल और एचपीसीएल ने तो वास्तव में अपने कुल शॉर्ट टर्म कर्ज का 50% से 30% पिछले 2 साल में चुका दिया है। अगर कच्चा तेल $50 के आसपास स्थिर हो गया तो फिर इन कंपनियों के लिए यह बहुत फायदे वाली बात होगी, इससे उनकी बैलेंस शीट सुधरेगी और कमाई भी बढ़ेगी। 

क्या ये अंत है

अब सब इस बात पर निर्भर करता है कि कच्चे तेल की सप्लाई और डिमांड किस तरीके से रहती है। जैसा कि सऊदी के राजकुमार अल-वालीद बिन तलाल ने कहा कि अगर सप्लाई जहां है वही रहती है और डिमांड भी जहां है वहीं रहती है, तो कीमत यहां पर बॉटम नहीं बनाएगी, उसमें और गिरावट संभव है। साथ ही अमेरिका ने कच्चे तेल के निर्यात पर लगा 40 साल पुराना प्रतिबंध हटा दिया है इसका मतलब है कि बाजार में कच्चे तेल की सप्लाई बढ़ेगी और कीमतों पर भी दबाव बढ़ेगा। 

सितंबर 2016 में ओपेक देशों में अंततः इस बात के लिए सहमति हो गई कि कच्चे तेल का उत्पादन कम किया जाए। आप ब्लूमबर्ग के इस लेख को यहां पढ़ सकते हैं। article on Bloomberg.

वैसे तो अमेरिकन शेल ऑयल ने बाजार में हलचल मचा दी है, लेकिन इसका एक दूसरा हिस्सा भी है। जो कंपनियां इस शेल ऑयल को निकाल रही हैं वह कितनी मजबूत हैं, क्या उनके बैलेंस शीट में ज्यादा लेवरेज है, क्या वह शेल ऑयल रिजर्व को जरूरत से ज्यादा बड़ा बता रही हैं, आगे जाते हुए इन सवालों का जवाब बाजार को जरूर मिलेगा और इसका असर कच्चे तेल की कीमतों पर पड़ेगा। 

लेकिन अगर अभी आप मुझसे पूछे कि क्या कच्चा तेल अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है तो इसका जवाब देना मेरे लिए संभव नहीं है। 

ध्यान दीजिए कि वैरसिटी के सारे दूसरे अध्यायों की तरह इस अध्याय में कोई मुख्य बातें नहीं हैं। मैंने यहां सिर्फ यह बताया है कि कच्चे तेल में क्या हो रहा है। आगे जाते हुए यह सिर्फ एक ऐसा इतिहास बन सकता है जिसकी कोई जरूरत नहीं रह जाए। 

ध्यान दें – मैंने यह सारी बातें द स्पेशल रिपोर्ट में से ली है जो कि मैंने दलाल स्ट्रीट इन्वेस्टमेंट जर्नल के लिए लिखा था।  The special report

 




4 comments

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  1. super learner says:

    SIR RISK MENGAMENT WALA BHI HINDI KARIYE

    • Kulsum Khan says:

      हम उन पर काम कर रहे हैं, वे भी जल्द ही उपलब्ध कराये जाएंगे।

  2. raghvendra says:

    respected sir aage ke module bhi hindi me provide karne ki kripa kare thank you

    • Kulsum Khan says:

      हम उन पर काम कर रहे हैं, वे भी जल्द ही उपलब्ध कराये जाएंगे।

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