2 मई से रेगुलेटरी बदलाव : क्लाइंट के कोलैटरल को अलग अलग करना

May 4, 2022

12 अप्रैल को SEBI को आये हुए 30 साल हो गए, और पिछले 3 सालों में उन्होंने ब्रोकिंग इंडस्ट्री में जितने रेगुलेटरी बदलाव किए हैं, वह पिछले 27 सालों में किए गए पूरे बदलाव से ज्यादा हैं ! इंडस्ट्री के लिए इतने सारे बदलावों को ऑपेऱशनली मैनेज करना काफी मुश्किल रहा है, लेकिन हर एक रेगुलेशन शायद लंबे समय में हमारे कैपिटल मार्केट की मदद करेगा।

2 मई 2022 को, क्लाइंट कोलैटरल (PDF )को अलग अलग करने का एक नया रेगुलेशन, जो शायद पिछले कुछ सालों का सबसे अच्छा बदलाव है, वह लाइव हुआ। जबकि इस रेगुलेशन से Zerodha के साथ आपके ट्रेडिंग एक्सपीरियंस पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, यह सिस्टम के पीछे लगने वाले बड़े बदलावों को दिखाता है। ब्रोकिंग इंडस्ट्री पर पड़ने वाले इसके प्रभाव के कारण, यह रेगुलेशंस मीडिया में बड़ी हेडलाइंस बन गए हैं।

इन नियमों के साथ, भारत का मार्केट दुनिया के सबसे सुरक्षित मार्केट में से एक है, यहाँ न तो सिस्टेमेटिक रिस्क होता है, और न ही रिटेल इन्वेस्टर्स को ब्रोकरेज फर्मों के साथ ट्रेडिंग और डीलिंग में रिस्क होता है।

बैकग्राउंड 

भारत में ब्रोकरेज इंडस्ट्री कस्टमर्स को धोखा देने वाले कई ब्रोकरों से जूझ रहा है, जिसके कारण पिछले कुछ सालों में बहुत सारे रेगुलेटरी बदलावों को बहुत प्रोत्साहन मिला है। काफी सारे बदलाव यह ध्यान में रखते हुए किये गए हैं कि ब्रोकरेज फर्म एक लिमिट से ज्यादा रिस्क नहीं उठा सकते हैं और क्लाइंट के फंड या उनकी सिक्योरिटीज का गलत उपयोग नहीं कर सकते हैं। यहाँ कुछ उदाहरण हैं :

  • ब्रोकर पहले क्लाइंट से फंड इकट्ठा करते हैं जो उनके पूल में जमा हो जाते हैं, जिससे एक्सचेंजस पर क्लाइंट को ट्रांसक्शन्स करने मिलता है। 2009 तक कस्टमर के अनयूज़ड फंड्स(unused funds) किसी भी समय तक ब्रोकर के पूल अकाउंट में रह सकते थे, जिसके बाद फंड्स का क्वार्टरली सेटलमेंट शुरू किया गया था, SEBI ने हाल ही में अनिवार्य किया है कि किसी भी अनयूज़ड फंड्स को 30 दिनों के अंदर कस्टमर के बैंक अकाउंट में वापस कर दिया जाए।

  • जब किसी ब्रोकर के कस्टमर्स स्टॉक या सिक्योरिटीज खरीदते हैं, तो एक्सचेंज उन्हें T+2 दिनों में ब्रोकर के डीमैट पूल अकाउंट में बल्क में क्रेडिट करता है, जिसके बाद ब्रोकर बल्क यूनिट्स को अलग अलग करता है और उन्हें एक एक क्लाइंट के डीमैट अकाउंट में जमा करता है। अब इसे एक्सचेंजों द्वारा एक्टिव रूप से मॉनिटर और रिकन्साइल किया जाता है, लेकिन पहले इसे कोई नहीं देखता था। यदि किसी कस्टमर ने अपने स्टॉक के लिए पूरे पैसे दे दिए है और ब्रोकर ने इसे खरीदने के लिए फंड नहीं दिया है, तो ब्रोकरों को उन यूनिट्स को अपने पूल अकाउंट में रखने की अनुमति नहीं दी जाती है, कस्टमर के डीमैट अकाउंट में तुरंत सेटलमेंट की आवश्यकता होती है।
  • जब कोई कस्टमर अपनी होल्डिंग से स्टॉक बेचता है, तो ब्रोकर पहले कस्टमर के डीमैट अकाउंट से शेयरों को डेबिट करता है और दिन के आखिरी में एक्सचेंजों के साथ सेटलमेंट करने से पहले यूनिट्स को ब्रोकर के डीमैट पूल अकाउंट में ट्रांसफर कर देता है। नए नियम सिक्योरिटीज को ब्रोकर के पूल अकाउंट में ट्रांसफर करने के बीच के इस स्टेप को हटा देते हैं और इसके बजाय सीधे एक्सचेंजों के साथ सेटलमेंट को इनेबल करते हैं। इंडस्ट्री भी धीरे-धीरे कस्टमर्स से पावर ऑफ अटॉर्नी (PoA) ना मांगकर सेल(sell) ट्रांसक्शन्स के लिए डीमैट से शेयरों को डेबिट कर रहा है। इसके बदले , कस्टमर्स के स्टॉक बेचने पर डिपॉजिटरी eDIS सिस्टम एक बैंक ट्रांसक्शन की तरह कस्टमर्स  के साथ सीधे एक OTP के द्वारा डीमैट से डेबिट को ऑथेंटिकेट करता है।  

ट्रेडिंग अकाउंट में अनयूज़ड फंड्स को नियमित रूप से वापस ट्रांसफर करना, और ब्रोकर्स को ब्रोकर पूल अकाउंट में क्लाइंट स्टॉक रखने से रोकना, भारत के यूनिक रेगुलेशन हैं। US सहित कई मार्केट्स में, ब्रोकरेज फर्म एक बैंक के जैसे काम करते है, जैसे उपयोग में ना आने वाले फंड्स और सिक्योरिटीज को वह अपने पास रखते हैं और  इसका उपयोग दूसरों को उधर देने के लिए भी कर सकते हैं। इस कॉन्टेक्स्ट में और जानकारी के लिए इस पोस्ट को देखें।  

भारत के ब्रोकरेज फर्म किसी भी अनयूज़ड क्लाइंट फंड का उपयोग नहीं कर सकते हैं, लेकिन ऐसा हो सकता था कि एक कस्टमर के बचे हुए पैसे का उपयोग दूसरा कस्टमर कर ले क्योंकि सभी फंड्स एक्सचेंज के पूल अकाउंट में जमा होते है। यहां एक उदाहरण दिया गया है कि कैसे अधिकांश ब्रोकरेज फर्म पिछले साल हटाए जाने तक एडिशनल इंट्राडे लीवरेज को ऑफर कर सकते थे।

मान लें कि किसी स्टॉक में 20% का VAR+ELM मार्जिन है (कम से कम मार्जिन, जो एक्सचेंज किसी भी इक्विटी ट्रेड के लिए पूछते हैं)। मान लीजिए एक ब्रोकर ने इस स्टॉक के लिए कस्टमर से इंट्राडे ट्रेड्स के लिए केवल 1% मार्जिन मांगा।जब कस्टमर ने ट्रेड किया तो ब्रोकर को अभी भी बचे हुए 19% मार्जिन को क्लीयरिंग कॉर्पोरेशन के पास रखना होगा । एक ब्रोकरेज फर्म अनयूज़ड पूल किए गए क्लाइंट फंड से एडिशनल 19% मार्जिन रख सकती है। इस तरह से लगभग सभी ब्रोकर्स द्वारा बिना किसी एडिशनल कॉस्ट के इंट्राडे लीवरेज या फंडिंग दी गई थी, जब तक कि नए रेगुलेशन के द्वारा इसे बंद नहीं किया गया। 

जैसा कि आप सोच सकते हैं, एक कस्टमर के ग्रुप का दूसरे ग्रुप के कस्टमर को लिवरेज देने करने में बहुत बड़ा रिस्क है। यदि कोई कस्टमर जो ट्रेड करता है, यदि किसी वोलेटाइल दिन में अपने अकाउंट में उपलब्ध पैसे से अधिक खो देता है और यदि ब्रोकरेज फर्म के पास कस्टमर के नुकसान को एक्सचेंज के साथ सेटल के लिए पर्याप्त पैसे नहीं है, तो ब्रोकर का रिस्क दूसरे अनजाने कस्टमर्स को ट्रांसफर हो जाता है। यह ठीक उसी तरह है जैसे बड़े कर्ज वाले बैंक सभी कस्टमर्स के जमा किये हुए पैसे पर असर डाल सकते हैं। इस सिस्टेमेटिक रिस्क को पिछले साल ठीक किया गया था जब SEBI ने सभी एडिशनल इंट्राडे लीवरेज को हटा दिया था जो ब्रोकर ऑफर करते थे। आज, एक कस्टमर को ट्रेड करने से पहले रेगुलेशन द्वारा बताई गयी मिनिमम मार्जिन की जरुरत होती है और, ब्रोकर्स को ना तो दूसरे कस्टमर के जमा किए गए पैसों से, और न ही अपने कैपिटल के साथ एडिशनल मार्जिन देने की अनुमति है।

हालांकि इससे एक कस्टमर के फण्ड को दूसरे कस्टमर के ट्रेड के लिए रोके जाने पर इसने सिस्टेमेटिक रिस्क का समाधान निकला, लेकिन अभी भी ऐसे कुछ केसेस थे जहाँ ऐसी चीज़ें हो सकती थी।SEBI नहीं चाहता था कि किसी एक कस्टमर के पैसों का उपयोग दूसरे कस्टमर के किसी भी उपयोग के लिए किया जाएँ जो कस्टमर के न्यू रेगुलेशन ऑफ़ क्लाइंट कोलैटरल(new regulation of segregation of client collateral) को  दिखाता है जिसे 2nd मई 2022 को लाइव किया गया।   

नए रेगुलेशंस में सम्बोधित की गयी स्तिथियाँ 

जब कोई कस्टमर अपनी होल्डिंग से स्टॉक बेचता है, तो तब तक VAR+ELM मार्जिन चार्ज किया जाता है, जब तक कि स्टॉक उनके डीमैट अकाउंट से डेबिट नहीं हो जाता और एक्सचेंजों को डिलीवर नहीं हो जाता। मार्जिन इसलिए चार्ज किया जाता है क्योंकि क्लाइंट के द्वारा उनके बेचे गए स्टॉक (शॉर्ट डिलीवरी) को डिलीवर नहीं देने का रिस्क होता है। ब्रोकर इन डिलीवरी को एक्सचेंज के साथ जल्दी सेटल कर देते हैं ताकि एक्स्ट्रा मार्जिन ना लगे ।  लेकिन, जब तक सेटलमेंट नहीं होता है, जो कि जिस दिन ट्रेड किया है उस दिन के आखिरी में हो सकता है, पेंडिंग सेटलमेंट के लिए जरुरी मार्जिन कस्टमर या ब्रोकर के द्वारा दिया जाना चाहिए। यदि कोई कस्टमर जिसे पास कोई बैलेंस नहीं है उसे अपनी होल्डिंग्स (जो सभी ब्रोकर करते हैं) से स्टॉक बेचने दिया जाता है, तो ऐसे ट्रेडों पर लगने वाली मार्जिन को ब्रोकर के द्वारा दिया जाना चाहिए, जब तक कि स्टॉक एक्सचेंजों के साथ सेटल नहीं हो जाते। यदि किसी ब्रोकर को इन मार्जिन को देने के लिए एक्स्ट्रा फंड्स नहीं है , तब भी दूसरे कस्टमर्स के फण्ड का उपयोग करके कम समय के लिए इन ट्रेडस के पैसे देना संभव था । लेकिन , नया नियम इसे रोकता है। यदि कोई ब्रोकर किसी कस्टमर को जरुरी  VAR+ELM मार्जिन को पहले से लिए बिना स्टॉक बेचने की अनुमति देता है, तो उन्हें अपने कैपिटल से मार्जिन जरूरतों को पूरा करना होगा।

  • जब कोई कस्टमर स्टॉक बेचता है, तो ब्रोकर (तुरंत) दूसरे स्टॉक खरीदने या डेरीवेटिव ट्रेडस के लिए बेचे हुए स्टॉक के पैसे से 80% फंड को उपयोग करने की अनुमति देते हैं, भले ही पैसे T+2 दिन के बाद एक्सचेंज की तरफ से ब्रोकर के पास आते हैं। इसलिए, स्टॉक को बेचने के लिए ना केवल VAR+ELM की जरुरत है, जैसा कि पहले बताया गया है, स्टॉक खरीदने के लिए एडिशनल VAR+ELM की जरुरत होती है या तुरंत बेचे गए स्टॉक के प्राइस से लिए गए नए डेरिवेटिव ट्रेड के लिए पर्याप्त मार्जिन की जरुरत होती है। यदि कोई कस्टमर बिना किसी फंड के स्टॉक बेचता है और दूसरे स्टॉक खरीदने या F&O ट्रेड करने के लिए बेचे गए स्टॉक से प्राप्त क्रेडिट का उपयोग करता है, तो मार्जिन दो बार लगता  है। आगे जाकर, इसे ब्रोकर को अपनी कैपिटल से भरना होगा।
  • जब कोई कस्टमर डेरिवेटिव ट्रेड के मार्जिन के लिए अपने स्टॉक को प्लेज करता है, तो 1:1 के कोलैटरल रेश्यो को मेन्टेन करना होता है। यानी F&O पोजीशन के लिए, मार्जिन का 50% कैश में  दिया जाना चाहिए, जबकि बचा हुआ 50% प्लेज के कोलैटरल से आ सकता है। भले ही किसी कस्टमर के पास पोजीशन लेने के लिए पर्याप्त कोलैटरल मार्जिन हो, लेकिन यदि पर्याप्त कैश मार्जिन न हो, तो कैश को ब्रोकर को अपने खुद के कैपिटल से देना होता है।
  • जब कोई कस्टमर पेमेंट गेटवे का उपयोग करके अपने ट्रेडिंग अकाउंट में पैसे ट्रांसफर करता है, तो फंड तुरंत ब्रोकर के पूल बैंक अकाउंट में जमा नहीं होता है और इसमें T+1 दिन तक का समय लग सकता है। लेकिन , फंड कस्टमर के ट्रेडिंग अकाउंट में तुरंत दिखाई देते हैं, जिससे उन्हें ट्रेड करने के लिए मार्जिन मिलता है। इसे अब ब्रोकर की अपने कैपिटल से भरना होता है।
  • ज्यादातर ब्रोकर कस्टमर के ट्रेडिंग अकाउंट में उपलब्ध फंड्स का उपयोग इक्विटी, F&O और करेंसी सेगमेंट में ट्रेड करने के लिए देते हैं।आने वाले समय में , ब्रोकर को क्लियरिंग कॉरपोरेशन में हर कस्टमर के लिए सेगमेंट के अनुसार मार्जिन अलग अलग करना होगा। यदि कोई कस्टमर ऐसे सेगमेंट में ट्रेड करता है जहां मार्जिन अलग अलग नहीं दिखाया जाता है, तो ब्रोकर को अंतर को फंड करना होगा।
  • उदाहरण के लिए, यदि किसी कस्टमर के पास Rs 1 लाख  हैं और यदि ब्रोकर क्लियरिंग कॉरपोरेशन में इक्विटी और F&O में  एक एक सेगमेंट में Rs 50k बाँटता है, और कस्टमर Rs 1 लाख के F&O पोजीशन को लेने का फैसला करता है, तो ब्रोकर को इस कस्टमर  को 50k रुपये का फंड देना होगा। अपने कैपिटल से जब तक क्लियरिंग कॉरपोरेशन में फिर से एडजस्ट नहीं किया जाता है।
    अब तक, एक्सचेंज ब्रोकरों को रिस्क रिडक्शन मोड (RRM) में रखते हैं, जब ब्रोकर द्वारा उपयोग किया गया कुल मार्जिन उनके सभी कस्टमर के कुल मार्जिन के 90% से अधिक हो जाता है। इस मोड में, एक्सचेंज केवल एक्सिस्टिंग पोजीशन से बाहर निकलने की अनुमति देते हैं और ब्रोकर के सभी नए ट्रेडस को ब्लॉक कर देते हैं। 
  • आगे जाकर, RRM को क्लाइंट लेवल पर लगाया जाएगा।  यानी, अगर Rs 1 लाख  वाला कस्टमर पूरे Rs 1 लाख की पोजीशन लेता है, तो ब्रोकर के अपने कैपिटल से Rs 10,000 ब्लॉक हो जाते हैं। एक ब्रोकर को अब या तो कस्टमर को उपलब्ध मार्जिन के 90% से अधिक अमाउंट पर ट्रेड करने से मना करना होगा, या अपने कैपिटल से एडिशनल 10% को देना होगा।

यह बदलाव जो 2 मई 2022 को लाइव हुए इनका मतलब यह हो सकता है कि कुछ ब्रोकर जिनके पास पर्याप्त कैपिटल नहीं हैं, उन्हें ऊपर बताये गए ट्रेडिंग सिनेरियो के अनुसार, कस्टमर को दिए जाने वाले ट्रेडिंग और इन्वेस्टमेंट के ऑफर को बदलना पड़ सकता है।  

ब्रोकिंग इंडस्ट्री पर प्रभाव 

बिज़नेस के साइज को ध्यान में रखते हुए ज्यादा कैपिटल की नयी जरुरत बैंकों के लिए निर्धारित कैश रिज़र्व रेश्यो के समान काम करती है। नए बदलाव 2 मई को लाइव हो गए, नए रेगुलेशन का पालन करने के लिए तीन महीने की छूट है।

ऐसे बदलाव नहीं हो सकते हैं जिन्हें तुरंत नोटिस किया जाए, ब्रोकिंग इंडस्ट्री के लिए वर्किंग कैपिटल की जरुरत 1 अगस्त 2022 से बढ़ने वाली है। इससे ब्रोकरेज चार्जेज भी बढ़ सकते हैं । बुल रन के साथ इसे कुछ समय के लिए टाल सकते हैं। पहले इंडस्ट्री ने फंडिंग के कॉस्ट को कवर करने के लिए ब्रोकरेज प्रतिशत लिया। इक्विटी डिलीवरी मॉडल के लिए एक फ्लैट फीस या शून्य ब्रोकरेज में, ज्यादा वर्किंग कैपिटल देना ब्रोकर्स के लिए एक और खर्चा बढ़ने वाला हैं।  

ब्रोकर जिनके पास अच्छा कैपिटल हैं, वे पहले की तरह ही ट्रेडिंग और इन्वेस्टमेंट करने देना रख जारी पाएंगे, लेकिनजिन  ब्रोकर के पास अच्छा फण्ड नहीं हैं, उन्हें अपने ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म पर कुछ प्रतिबंध लगाने पड़ सकते हैं ।

क्या Zerodha में कुछ बदलने वाला हैं?

नहीं, यहाँ कुछ नहीं बदलेगा । पिछले 12 सालों में, हमे धीरे-धीरे, लगातार, फायदा हुआ है और हम डेब्टफ्री(debt-free) हुए हैं। बिज़नेस बढ़ने के साथ हमारा नेटवर्थ बढ़ा है। हमें कभी भी एक कस्टमर के फंड का उपयोग दूसरे कस्टमर को फंड करने के लिए नहीं करना पड़ा है, हमारे द्वारा ऑफर किए गए एडिशनल इंट्राडे लीवरेज में हम बहुत कन्सर्वेटिव(conservative) थे जबकि लोग दूसरे ब्रोकर्स के साथ ज्यादा लीवरेज के लिए अकाउंट खुलवाते थे।  

आज, Zerodha की अपना कैपिटल पूरे कस्टमर्स के फण्ड से 10% अधिक है, जो शायद इंडस्ट्री में सबसे ज्यादा है और ऊपर बताई गयी स्तिथियों को कवर करने के लिए काफी है, जिससे यह पक्का हो जाता है कि आपके इन्वेस्टमेंट और ट्रेड के अनुभव में कोई बदलाव नहीं आएगा ।

आशा करते है, यह पोस्ट नए रेगुलेशन के डेप्थ और प्रभाव को बताता है। यदि आपको कोई प्रश्न हैं, तो उन्हें नीचे पोस्ट करें।

Business Analyst at Zerodha


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