शॉर्टिंग और भारतीय कैपिटल मार्केट्स

June 13, 2022
हमे लगता है कि आपने US की हेडलाइंस के बारे में पढ़ा होगा कि कैसे रिटेल इन्वेस्टर्स गेमस्टॉप, AMC एंटरटेनमेंट जैसे शेयरों में “शार्ट स्क्वीज़” की स्तिथि पैदा कर रहे हैं। यदि आपने नहीं देखा है, तो फिनशॉट्स के इस आर्टिकल को देखें जो इसे अच्छी तरह से समझाता है।हमें शॉर्टिंग के बारे में बहुत सारे सवाल आये हैं, और क्या भारतीय एक्सचेंजों में लिस्टेड शेयरों में इस तरह का शार्ट स्क्वीज़ हो सकता है। पर भारत में ऐसा नहीं हो सकता है, इसका कारण हम आपको नीचे बता रहे हैं ।
स्टॉक लेंडिंग और बोर्रोविंग का छोटा सा परिचय (SLB)
मार्केट में इन्वेस्ट करने वाले बहुत से लोग सोचते हैं कि प्रॉफिट बनाने का सिर्फ एक ही तरीका हैं कि उन शेयरों को खरीदिये जो उम्मीद से ज्यादा बढ़ सकते हैं, अगर कंपनियां अच्छा करती हैं, तो प्राइसेस भी बढ़ेंगे। इस प्रकार शेयरों को खरीदने को “लॉन्ग स्टॉक्स” करना कहा जाता है।
जबकि हम में से बहुत से लोग इन्वेस्ट करते हैं या स्टॉक लॉन्ग करते हैं, लेकिन एक्टिव ट्रेडर्स का एक छोटा ग्रुप होता है, जो इसका उल्टा करता हैं। वे उन शेयरों की पहचान करते हैं जो अच्छा नहीं कर रहे हैं और शर्त लगाते हैं कि उन स्टॉक के प्राइस नीचे जाएंगे । यह वह ट्रेड होता है जब पहले किसी स्टॉक को करंट प्राइस पर बेचा जाता है (हाँ, शेयर को रखे हुए बेचना) और जब वह गिरता है तो उसे कम प्राइस पर वापस खरीदा जाता है , और उसके अंतर को अपने पास रखना होता है। किसी से स्टॉक उधार लेकर, यदि आप किसी ऐसे स्टॉक को मार्केट में बेचते हैं,  जो आपके पास नहीं है।जब प्राइस  कम हो जाता है, तो आप इसे वापस खरीद लेते हैं और फिर स्टॉक को लेंडर को वापस कर देते हैं और प्रॉफिट अपने पास रख लेते हैं। आपको यहाँ तब नुकसान हो सकता हैं, जब स्टॉक का प्राइस नीचे की बजाय ऊपर जाता है क्योंकि आपको इसे ज्यादा प्राइस पर वापस खरीदना होगा।यदि कोई आपको स्टॉक उधार देगा तो उधार देने वाला व्यक्ति आपको इसके लिए फीस चार्ज करेगा और इस प्रोसेस में, उधार देने वाला शेयर उधार देकर कुछ एक्स्ट्रा पैसे कमा सकता है। यह बात सच है कि उधार देने वाला व्यक्ति किसी को स्टॉक को केवल तभी उधार देगा जब उनका इरादा इसे लंबे समय तक रखने का है और वह उस समय स्टॉक नहीं बेचना चाहता है, जब स्टॉक उधार दिया गया है।
स्टॉक को लेने और उधार देने की इस प्रकिया को स्टॉक लेंडिंग और बोर्रोविंग या SLB कहा जाता है। इस लिंक में दिए गए पोस्ट से आप यह जान सकते है कि भारत में SLB कैसे काम करता है। यह भारत में 2008 में आया था और इसमें काम होना 2018 के बाद शुरू हुआ जब रेगुलेटर ने स्टॉक्स को रोलओवर 12 महीनों तक शुरू हुआ (कम से कम  1+11 महीने)
इंडियन एक्सचेंज में शार्ट करना 
भारतीय एक्सचेंजों पर, आप SLB प्लेटफॉर्म से उधार लिए बिना इंट्राडे के लिए स्टॉक शार्ट कर सकते हैं। लेकिन ऐसी पोजीशन ओवरनाइट नहीं रखी जा सकती क्योंकि आपको अगले बिज़नेस दिन पर शॉर्ट पोजीशन के लिए स्टॉक देने की आवश्यकता होगी। जबकि इंट्राडे में शेयरों में कई शॉर्ट ट्रेड होते हैं, लगभग सभी ओवरनाइट शॉर्ट पोजीशन फ्यूचर्स और ऑप्शंस का उपयोग करके की जाती हैं, न कि SLB का , जहां ट्रेडर्स इंडेक्स या स्टॉक के नीचे जाने पर दांव लगाते हैं। यहां कुछ कारण दिए गए हैं:
1. F&O को 2001 में लाया गया था, इसलिए SLB की शुरुवात लगभग 12 साल के बाद हुई थी, जिसने 2013 में पहली एक्टिविटी शुरू किया था।
2. लिवरेज (आपके पैसे से अधिक अमाउंट पर ट्रेड करने मिलना ) F&O पर उपलब्ध है। ऑप्शंस पर ट्रेड करके आप बहुत सारी ट्रेडिंग स्ट्रेटेजी सेट कर सकते हैं और SLB की तरह आपको नेकेड शॉर्टिंग करने की जरुरत नहीं पड़ेगी।  
3. पहले सभी F&O कॉन्ट्रैक्ट्स कॅश-सेटल्ड नहीं थे जिसका मतलब उन पर ट्रेड करना SLB की तुलना में सरल था क्योंकि SLB में सिक्योरिटीज को अलग अलग अकाउंट में भेजना होता था।  
4. एक्सचेंज के बिज़नेस में लिक्वीडीटी होना बहुत जरुरी है। F&O कॉन्ट्रैक्ट में SLB की तुलना में बहुत लिक्विडिटी है, इसलिए ट्रेडर्स अपने आप ऐसी जगह ट्रेड करना चाहते है जहाँ लिक्विडिटी ज्यादा होती है क्योंकि इम्पैक्ट कॉस्ट बहुत कम होता हैं।  
लेकिन इसके अलावा, SLB प्लेटफॉर्म पर ट्रेड करने के कुछ फायदे भी हैं। 
1. F&O में आप मिनिमम लॉट साइज के मल्टीप्ल में ही ट्रेड कर सकते हैं लेकिन SLB में आप उधार लेकर किसी कंपनी के कम से कम 1 शेयर में भी ट्रेड कर सकते हैं। 
2. F&O में 140 स्टॉक्स पर ट्रेड होता हैं लेकिन SLB प्लेटफॉर्म में 350 स्टॉक्स है। इसलिए यदि आप ऐसा स्टॉक शार्ट करना चाहते हैं जो F&O में नहीं हैं तो आपके पास सिर्फ एक ऑप्शन SLB हैं।  
3. F&O कॉन्ट्रैक्ट्स में ज्यादा से ज्यादा 3 महीनों की वैलिडिटी होती है। आपको रोलओवर ( एक्सिस्टिंग कॉन्ट्रैक्ट से एग्जिट करके और अगले 3-महीने के कॉन्ट्रैक्ट में एंटर करना ) कॉस्ट को सहना होगा। स्टॉक F&O कॉन्ट्रैक्ट में, 3rd महीने के कॉन्ट्रैक्ट में ट्रेडिंग वॉल्यूम बहुत कम होता है, इसलिए आपको किसी भी कॉन्ट्रैक्ट को हर 2 महीने में रोल-ओवर करना होगा जोकी लॉन्ग टर्म शार्ट पोजीशन के लिए बहुत महँगा पड़ेगा।  SLB में, आप यदि कोई ऐसा बोर्रोवेर लाते है जो लेंड करना चाहता है, तो आप शेयर उधार लेकर और स्टॉक बेचकर और इस पोजीशन को होल्ड करके अगले 12 महीनों तक  रोलओवर कॉस्ट की चिंता किये बिना रख सकते हैं। 
4. लेंडर्स अपने लॉन्ग टर्म पोर्टफोलियो के लिए एक एक्स्ट्रा इनकम प्राप्त कर सकते है और इसमें पार्टिसिपेट करने के कारण वह कुछ एक्स्ट्रा पैसे कमा सकते हैं। 
इन कारणों से, कोई यह मान सकता है कि एक्टिविटी देखने के लिए SLB प्लेटफॉर्म में लोगो का इंटरेस्ट होना चाहिए। लेकिन इसमें कुछ रूकावटें आ सकती हैं। सबसे पहले, लेंडर की इनकम  “इनकम फ्रॉम अदर सौर्सेस ” के अंदर आती है, इसलिए उधार देने वाले लोगों को ITR 3 का उपयोग करके फाइल करना होगा और इसके लिए ऑडिट की आवश्यकता हो सकती है। जब भी राइट्स और बोनस इश्यू जैसी कॉरपोरेट एक्शन्स होते है, तो पोजीशन को क्लोज करना होता है। आखिरी में,  F&O की तुलना में बैक-एंड ऑपरेशन SLB के लिए मुश्किल है, और ब्रोकरेज फर्मों के पास अभी भी इसे स्केल करने के लिए सिस्टम नहीं हैं। Zerodha में, हम अगले कुछ महीनों में अपने सभी कस्टमर्स को SLB प्लेटफॉर्म देने पर काम कर रहे हैं।
US स्टॉक एक्सचेंज पर शार्ट करना 
भारत के विपरीत जहाँ SLB नया है और एक्टिव नहीं है , US में इसका बहुत बड़ा मार्केट है।बहुत सारी बड़ी बड़ी शॉर्ट-ओनली हेज फंड्स ऐसी छोटी कंपनीयों की पहचान करती हैं, जो अच्छा नहीं कर रही हैं और F&O का उपयोग किये बिना स्टॉक्स को शार्ट कर देते हैं। 
मैंने यह पोस्ट कुछ साल पहले लिखा था जिसमे भारतीय ब्रोकरेज इंडस्ट्री की US के साथ तुलना की थी।  यहां उस पोस्ट का एक हिस्सा दिया गया है जो भारत की तुलना में US में सिक्योरिटीज लेंडिंग देने के तरीके में अंतर के बारे में बात करता है।ब्रोकर्स को सिक्योरिटीज को उधार देने के लिए कैसे इंसेंटिव मिलता है, जिससे इसके मार्केट को बढ़ने में मदद मिली है।
सिक्योरिटीज लेंडिंग 
हमारे डिपॉजिटरी सिस्टम का ढाँचा, हमारे पेमेंट सिस्टम की तरह, US की तुलना में नया और आधुनिक है। इसका कारण यह है कि 1990 के में जब हम ऑनलाइन आये तो भारत किसी सिस्टम को नहीं मानता था । हमारे पास NDSL और CDSL जैसे डिपॉजिटरी हैं, जहां हम डीमैट अकाउंट रखते हैं जिन पर रखे शेयर्स पर कोई फर्क नहीं पड़ता, भले ही ब्रोकरेज फर्म परेशानी में पड़ जाए। US में सभी सिक्योरिटीज को अनिवार्य रूप से ब्रोकर्स के पास बुक या स्ट्रीट नाम में रखा जाता है, जिसे वह “बुक और रिकॉर्ड सिस्टम” कहते हैं। इसका मतलब है कि सभी सिक्योरिटीज ब्रोकर्स के पास हैं। यह US के ब्रोकरेज फर्म को इस बात की अनुमति देता है कि वह इन सिक्योरिटीज को उधार देकर या जो लोग इन्हें अपनी ट्रेडिंग स्ट्रेटेजी को ध्यान में रखकर शार्ट करना चाहते है उन्हें करने दे और बदले में कुछ पैसे कमा सकते हैं (भारत के बदले, स्टॉक को शॉर्ट में उधार लेना US में बहुत होता है)।ब्रोकर द्वारा रखे गए इन शेयरों की कमाई स्टॉक को शॉर्ट करने वाले लोगों पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, इस साल की शुरुआत में, जब मारिजुआना के शेयर बहुत ज्यादा बढ़ रहे थे, तब ऐसा समय था जब कोई व्यक्ति इन शेयरों को उधार देकर 100% या उससे अधिक वार्षिक रिटर्न कमा सकता था। US में रेगुलेशन यह कहते है कि ब्रोकरेज को कुछ लेंडिंग फीस उस व्यक्ति के साथ शेयर करना होता है जो शेयर का मालिक है , लेकिन पूरी बात कस्टमर को साफ़ नहीं है। अधिकांश को कभी पता ही नहीं चलता कि कितना कमाया।
भारत में, ब्रोकर सिक्योरिटीज को उधार नहीं दे सकते क्योंकि वे डिपॉजिटरी के साथ क्लाइंट के डीमैट अकाउंट में रहते हैं। साथ ही, 1 अक्टूबर 2019 को आए नए नियमों के साथ, यहां तक ​​कि एक कस्टमर द्वारा खरीदी गई सिक्योरिटीज, जिनके लिए पैसे नहीं दिए गए है उन्हें भी गिरवी नहीं रखा जा सकता है। साथ ही, भारत में कोई SLB प्लेटफॉर्म नहीं है जहां क्लाइंट्स सीधे भाग ले सकते हैं, और उधार देने की फीस कमा सकते हैं।
स्टॉक शार्ट करना – भारत vs US 
भारतीय नियम कहीं अधिक कड़े, अच्छी तरह से डिजाइन किए गए हैं, और US के कैपिटल मार्केट नियमों की तुलना में इन्वेस्टर के हित को प्राथमिकता देते हैं। यह US मार्केट की तुलना में बहुत कड़े हैं। जबकि कुछ एक्सचेंज काफी पुराने हैं, हमारे सभी कैपिटल मार्केट के नियम नए हैं और 1991 के कैपिटल मार्केट सुधारों के बाद बनाए गए थे। US में नियमों में ढील का एक और कारण बहुत शक्तिशाली लॉबी का होना है।
शॉर्ट स्क्वीज ,या किसी स्टॉक ऊपर जाने से उसमें बहुत बड़ी संख्या में बायबाक होता है, जिससे उसमे और मोमेंटम बढ़ जाता है और उसका प्राइस बढ़ जाता है। ऐसा किसी भी स्टॉक में हो सकता है जहां शॉर्टिंग की अनुमति है। लेकिन गेमस्टॉप, AMC जैसे कुछ शेयरों में जब हम देखते हैं, तो US रेगुलेटर्स की गलती साफ़ दिखती है।
इनमें से कुछ शेयरों में, शॉर्ट किए गए स्टॉक की कुल क्वांटिटी (उधार और बेचे गए स्टॉक + डेरिवेटिव का उपयोग करके) फ्री फ्लोट या सार्वजनिक रूप से रखे गए शेयरों की कुल संख्या से बहुत अधिक है। इस तरह के बड़े स्पेक्युलेटिव(speculative) पोजीशन को रखने देना बहुत रिस्की है और आपदा का कारण बन सकता है।जबकि हर कोई रिटेल इन्वेस्टर्स इस बात पर खुश है कि वह हेज फण्ड से ज्यादा प्रॉफिट कर सकता है।लेकिन बहुत ज्यादा स्पेकुलेशन होने पर होने पर रिटेल इन्वेस्टर को नुकसान होता है।
भारत में, हमारे पास मार्केट-वाइड पोजिशन लिमिट (MWPL) है, जहां किसी भी स्टॉक में अधिकतम नेट पोजीशन F&O और SLB दोनों में फ्री फ्लोट का 20% होती है। प्रति क्लाइंट ज्यादा से ज्यादा ओपन इंटरेस्ट का 5% या कुल फ्री फ्लोट का 1% की अनुमति है। इस तरह की पोजीशन लिमिट से इस बात का ध्यान रखा जाता है कि असामान्य मार्केट में ऐसी पोज़िशन्स ऊपर या नीचे के स्पाइक्स का कारण बन सकती है, जैसा कि अभी हम कुछ US शेयरों में देख रहे हैं, काफी कम हो जाता है।
लेकिन यह कहने के बाद हम देखते हैं कि लोअर मैक्सिमम पोजीशन लिमिट भी अपने अलग अलग मुद्दों के साथ आती है। भारत में यह आरोप लगाया गया है कि ट्रेडर्स के समूह कुछ कम फ्री फ्लोट स्टॉक पर बहुत कम प्राइस पर डीप OTM ऑप्शंस खरीदकर शेयरों को बैन पीरिएड (जिसमें उस स्टॉक पर कोई नहीं पोजीशन नहीं ली जा सकती है ) में ले जाते हैं। नई पोजीशन की अनुमति नहीं होने के कारण, अंडरलाइंग स्टॉक प्राइस में कोई भी स्पाइक आने पर  पोजीशन में फंसे लोगों को अपने शॉर्ट्स को कवर करने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जिससे स्टॉक के प्राइस बढ़ सकते है।इंडिविजुअल होल्डिंग्स पर 5% OI के साथ इसे एक्सीक्यूट करना कठिन बनाता है, और ऐसे लोगों को सज़ा देने के लिए भी नियम हैं जो इस कॉन्सर्ट में कार्य करते हैं।
क्या स्टॉक शॉर्ट करने देना चाहिए?
यह एक ऐसा प्रश्न है, और इसके पक्ष और विपक्ष दोनों में तर्क दिए जाने हैं। मैं इसके पक्ष में हूं क्योंकि यह स्टॉक के बेहतर प्राइस की खोज करता है। ऐसे कई मौके आए हैं जहां शॉर्ट-सेलर्स ने संभावित धोखाधड़ी की पहचान की है और यह सुनिश्चित किया है कि इस तरह स्टॉक की कीमतें न बढ़ें। इसके अतिरिक्त, जो लोग शॉर्ट पोजीशन रखते हैं वे आमतौर पर तब बचाव के लिए आते हैं जब प्राइस में फ्री फॉल होता है, और स्टॉक खरीदने की कोई मांग नहीं होती है। शॉर्ट पोजीशन प्रॉफिट-बुकिंग में स्टॉक को वापस खरीदने से गिरावट कुछ कम होती है, जिससे वोलैटिलिटी कम होती है। शॉर्टिंग के साथ दूसरा पहलू यह है कि लिस्टेड बिज़नेस के प्रमोटरों को भी शेयर की प्राइस पर बहुत पास से नजर रखनी होगी।बड़ी संख्या में शार्ट ट्रेडर्स के अलावा, यह संभव है कि किसी कंपनी के प्रतिस्पर्धियो ने स्टॉक के प्राइस को कम करने का प्रयास करके बिज़नेस को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की हो।
प्रश्न है ? Trading Q&A thread को जॉइन कीजिये। Twitter के इस thread पर देखिये कि भारत का कैपिटल मार्केट रेगुलेशंस US से बहुत अच्छा क्यों हैं। 
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