लिवरेज का उपयोग करके ट्रेड करने पर लगने वाली मार्जिन्स और मार्जिन पेनॉल्टी
लिवरेज
जब इक्विटी या F&O ट्रेडर अपने अकाउंट में उपलब्ध मार्जिन या फंड्स से ज्यादा की पोज़िशन लेते है तो ऐसे पोज़िशन को लिवरेज्ड पोज़िशन कहा जाता है। ऐसा लोग इसलिए करते है ताकि वह अपने कैपिटल की तुलना में ज्यादा रीटर्न प्राप्त कर सकें, लेकिन इसके कारण उन्हें रिस्क ज्यादा लेना पड़ता है। लिवरेज्ड ट्रेड्स स्टॉक को शॉर्ट करने के लिए लिया जा सकता है यानि स्टॉक के नीचे जाने की संभावना होने पर आप उसे पहले बेच सकते है और बाद में खरीद सकते हैं। F&O पर ट्रेड करने वाला व्यक्ति लिवरेज का उपयोग करके ट्रेडिंग रणनीति जैसे वोलैटिलिटी का पता लगाना , आर्बिट्राज करना आदि से ज्यादा रीटर्न प्राप्त कर सकता हैं। F&O के उपयोग से किसी एक स्टॉक या पूरे पोर्टफोलियो को हेज किया जा सकता है। F&O के केस में अपने आप लिवरेज मिलती है, लेकिन इक्विटी में ऐसा नहीं है।
यहाँ कुछ उदाहरण दिए गए है जिनसे पता चलता है कि कुछ प्रकार के ट्रेड लेने से लिवरेज कैसे कम हो जाती है –
- एक इंट्राडे ट्रेड जिसमें आप स्टॉक X के 100 शेयर्स जिसका प्राइस Rs.1000 है, उसे शार्ट करते हैं। इस ट्रेड पर 5X लिवरेज(~20% मार्जिन लगेगी ) मिलने के कारण आप के पास सिर्फ Rs.20,000 होने से आप Rs.1,00,000 तक का शॉर्ट ट्रेड लेते हैं।
- Nifty futures जो 17000 पर ट्रेड हो रहा है, उसका का एक लॉट(लॉट साइज 50 ) खरीदने के लिए कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू का लगभग 12% अकाउंट में होना चाहिए जो Rs.1,02,000 होता है (कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू को ऐसे कैलकुलेट किया गया है 17000*50 = 8,50,000) क्योंकि F&O कॉन्ट्रैक्ट में लिवरेज अपने आप जुडी होती है, इसलिए पूरा Rs.8,50,000 देना संभव नहीं होता है और लिवरेज के बिना इसमें ट्रेड नहीं किया जा सकता है। लेकिन इक्विटी में ख़रीदे हुए शेयर्स पर पूरा पैसा देना होता हैं।
- ऑप्शंस राइट करने के लिए लगने वाली मार्जिन बिलकुल फ्यूचर्स की तरह होती है, जो कि कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू का कुछ प्रतिशत होती है।
- इंट्राडे स्टॉक ,फ्यूचर्स या ऑप्शंस शॉर्ट करने पर अनलिमिटेड नुकसान हो सकता है लेकिन जब आप ऑप्शंस खरीदते है तो आपको प्रीमियम से ज्यादा का नुकसान नहीं होता है। किसी भी ऑप्शन को खरीदने के लिवरेज नहीं लेना होता है, लेकिन इसमें बहुत ज्यादा रिस्क होता है और आप ध्यान से देखें तो सबसे ज्यादा लिवरेज्ड प्रोडक्ट यही है। चाहिए मैं इसे एक उदाहरण से समझाता हूँ। Nifty 17000 कॉल का 1 लॉट Rs 100 प्रीमियम पर खरीदने के लिए Rs 5000 (50 × 100) की जरुरत होगी। लेकिन Rs 5000 देकर आप 17000 × 50 = Rs 8,50,000 का एक्सपोज़र ले रहे है यानि 170 गुना लिवरेज। यहाँ आपका नुकसान सिर्फ Rs 5000 है, लेकिन Rs 8.5lks का एक्सपोज़र लेने पर यह पैसा आप बहुत जल्दी खो सकते हैं।
एक्सचेंजेस का 90% ट्रेडिंग वॉल्यूम का लिवरेज्ड ट्रेडों के कारण होता है, लेकिन इसमें से एक्टिव ट्रेडर्स का योगदान सिर्फ ~15% होता है। लिवरेज्ड ट्रेड्स मार्केट में अच्छी लिक्विडिटी प्रदान करते है और जिसके कारण इन्वेस्टर्स के लिए इम्पैक्ट कॉस्ट कम हो जाता है।
मार्जिन्स
लिवरेज्ड ट्रेड पर ट्रेडर के अकाउंट में जितने पैसे हैं, उससे ज्यादा का एक्सपोज़र होता है इसलिए ट्रेडर अपने अकाउंट में उपलब्ध पैसो से ज्यादा पैसों का नुकसान कर सकता है। इसलिए ऊपर दिए गए उदाहरण में यदि कोई ट्रेडर स्टॉक X के 100 शेयर्स Rs 1000 में खरीदता है और उसके अकाउंट में सिर्फ Rs 20,000 है और किसी कारण से स्टॉक Rs 1000 से Rs 500 तक नीचे आ जाता है तो ट्रेडर को Rs 50,000 का नुकसान होगा और Rs 20,000 के ऊपर का नुकसान यानि Rs 30,000 ब्रोकरेज फर्म को सेटल करना होगा।
यदि हज़ारों कस्टमर्स एक ही स्टॉक में पैसो का नुकसान करते हैं और ब्रोकरेज फर्म के पास इसके नुकसान की भरपाई के लिए अच्छे खासे पैसे नहीं हैं तो क्लाइंट से नुकसान का पैसा ना रिकवर कर पाने के स्तिथि में ब्रोकरेज फर्म दिवालिया हो सकते हैं इसलिए वह सिर्फ दूसरे कस्टमर को ही खतरे में नहीं डाल रहे हैं, बल्कि इससे पूरे मार्केट को रिस्क है। जैसा कि आप जानते हैं जितनी ज्यादा लिवरेज मिलती है, उतना ही ज्यादा रिस्क होता है। यह रिस्क सिर्फ ट्रेडर तक सीमित नहीं है , ब्रोकरेज फर्म्स और पूरे मार्केट्स को भी उतना ही रिस्क है।
इस रिस्क को सीमित रखने के लिए रेगुलेटर्स ने सभी ब्रोकरेज फर्म को सभी लिवरेज्ड ट्रेड्स के लिए एक मिनिमम मार्जिन लेना शुरू करने को कहा था । इस मिनिमम मार्जिन को इक्विटी सेगमेंट के लिए VAR+ELM (एक्सट्रीम लॉस मार्जिन ) और F&O के लिए SPAN+Exposure कहा जाता है। पिछले साल तक ब्रोकरेज फर्म्स के पास इंट्राडे ट्रेड्स के लिए मिनिमम मार्जिन के ऊपर भी अतिरिक्त(extra) मार्जिन देने की छूट थी और ब्रोकरेज फर्म्स ने इसका फायदा उठाकर अकाउंट भी खुलवाए। लेकिन पीक मार्जिन रेगुलेशंस के बाद अब ऐसा संभव नहीं है और आज, पूरी इंडस्ट्री में हर ब्रोकरेज फर्म में एक जैसी मार्जिन लगती है।
हमारे मार्जिन कैलकुलेटर का इस्तेमाल करके, आप इक्विटी, करेंसी & कमोडिटीज में मिनिमम मार्जिन या लिवरेज देख सकते हैं। पिछले कुछ सालों में मार्जिन रिक्वायरमेन्ट कैसे बदली है, इसकी पूरी जानकारी के लिए आप इस पोस्ट पर जा सकते हैं।
मार्जिन पेनॉल्टी
मार्जिन पेनॉल्टी रेगुलेटर्स के लिए एक तरीका है, जिससे वह इस बात का ध्यान रख सकें कि कस्टमर से मिनिमम मार्जिन ली जाये। पिछले साल तक मिनिमम मार्जिन सिर्फ EOD पोज़िशन पर लेना जरुरी होता था। इसका मतलब यह है कि किसी भी ओपन पोज़िशन के लिए ट्रेडिंग अकाउंट में मार्केट बंद होने के पहले मिनिमम मार्जिन होना जरुरी था। एक्सचेंजेस दिन के बीच में इंट्राडे ट्रेड की मार्जिन नहीं देखते थे और पेनॉल्टी तब लगाते थे, जब ट्रेडिंग दिन के ख़त्म होने पर अकाउंट में पर्याप्त मार्जिन नहीं होती थी। पीक मार्जिन के आने के बाद मार्जिन दिन के बीच में देखी जाती है और पोसिशन्स में इंट्राडे मार्जिन शॉर्टफॉल होने पर भी पेनॉल्टी लगाई जाती है।
क्लीयरिंग कॉर्पोरशन अलग अलग समय पर सभी इंट्राडे पोज़िशन के 5 स्नैपशॉट्स लेते है और दिन के दौरान कस्टमर्स की मार्जिन को देखकर यह सुनिश्चित किया जाता है कि स्नैपशॉट लेते समय पर्याप्त मार्जिन थी या नहीं। यदि ट्रेड करने वाले दिन के बीच में इंट्राडे स्नैपशॉट पर या EOD पर पर्याप्त मार्जिन नहीं रखी जाती है, तो शॉर्टफॉल अमाउंट पर पेनॉल्टी लगती है। यदि अमाउंट Rs 1L से कम होता है तो 0.5% पेनॉल्टी शॉर्टफॉल अमाउंट पर लगती है और Rs 1L से ऊपर के अमाउंट में 1% लगती हैं। एक महीने में 3 बार शॉर्टफॉल होने पर यह पेनॉल्टी बढ़ कर 5% तक हो जाती है। यह पेनॉल्टी एक्सचेंजेस के द्वारा ली जाती है और कोर Settlement Guarantee Fund (core SGF) में डेपोसिट की जाती है।
मार्जिन पेनॉल्टी दो प्रकार की होती है।
अपफ्रंट मार्जिन पेनॉल्टी
यह तब लगती है जब ट्रेडर्स के अकाउंट में ट्रेड को लेते समय पर्याप्त मार्जिन नहीं होती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी ट्रेडर के अकाउंट में Rs 1Lहै और ब्रोकरेज फर्म ने कस्टमर को Rs 1.1L मिनिमम मार्जिन(SPAN +Exposure) के साथ पोज़िशन लेने दिया, इसका मतलब Rs 10,000 का शॉर्टफॉल है, और इस शॉर्टफॉल अमाउंट पर पेनॉल्टी लगेगी।
नॉन-अपफ्रंट मार्जिन पेनॉल्टी
एक नॉन-अपफ्रंट मार्जिन में वह सभी मार्जिन शामिल होती है जो अपफ्रंट मार्जिन देने के बाद क्लाइंट द्वारा ट्रेड लेने पर उनसे ली जानी होती है। जब क्लाइंट इस एडिशनल मार्जिन को समय पर नहीं देते है, तो उन्हें शॉर्टफॉल होता है, जिस पर पेनॉल्टी लग सकती है। उदाहरण के लिए, यदि फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट में MTM लॉस है तो उस नुकसान पर पैसे देने का समय T+1 दिन है जिसे ना देने पर नॉन-अपफ्रंट मार्जिन शॉर्टफॉल कहलायेगा और पेनॉल्टी लगेगी। इसी प्रकार जब मार्केट में ज्यादा उतार-चढाव होता है या एक्सपायरी के आखिरी हफ्ते में स्टॉक F&O कॉन्ट्रैक्ट फिजिकल डिलीवरी मार्जिन बढ़ जाती है तो उस पर नॉन-अपफ्रंट मार्जिन लगती है।
अपफ्रंट और नॉन-अपफ्रंट मार्जिन पेनॉल्टी के लिए कुछ और जानकारी यहाँ दी गयी है।
मार्जिन पेनॉल्टी कौन वहन करता है?
ब्रोकर को तब पेनॉल्टी तब वहन करना पड़ता है, जब वह कस्टमर को बिना पर्याप्त मार्जिन के ट्रेड लेने देते हैं और किसी ट्रेड को लेने के बाद जब मार्केट में उतार-चढाव के कारण मार्जिन बढ़ जाती है और कस्टमर एडिशनल मार्जिन नहीं देते हैं तो ऐसी स्तिथि में कस्टमर को पेनॉल्टी देनी पड़ती है। इसलिए नियम कहते है कि ब्रोकर कस्टमर को अपफ्रंट मार्जिन पेनॉल्टी नहीं लगा सकते, लेकिन नॉन- अपफ्रंट पेनॉल्टी कस्टमर को लगाई जाती है।
यहाँ आकर इसे समझना थोड़ा मुश्किल है, खासकर डेरिवेटिव्स में(F&O, CDS, MCX). पिछले साल जब पीक मार्जिन पेनॉल्टी को लगाया गया था, तो ऐसी कुछ स्तिथियाँ शामिल थी, जिसमें ब्रोकर ने अपने कस्टमर को किसी ट्रेड को लेने तब दिया था, जब कस्टमर के अकाउंट में पर्यात अपफ्रंट मार्जिन था, लेकिन यदि किसी कारण से बाद में यह मार्जिन बढ़ जाती है तो शॉर्टफॉल को अपफ्रंट मार्जिन शॉर्टफॉल कहा जाता था और इसका भुगतान ब्रोकर द्वारा किया जाता था।
उदाहरण के लिए यदि कोई कस्टमर ने Buy Nifty futures और Buy Nifty put रखा हुआ है तो मार्जिन सिर्फ ~Rs 25k लगेगी क्योंकि यहाँ Put ने फ्यूचर्स पोज़िशन का रिस्क कम कर दियाहै । यदि कस्टमर Put पोज़िशन क्लोज कर देते हैं तो फ्यूचर्स की मार्जिन बढ़कर Rs 1lk हो जाती है। अब यदि कस्टमर के पास पर्याप्त मार्जिन (Rs 1L) नहीं है तो इसे अपफ्रंट मार्जिन का वोइलेशन(voilation) माना जायेगा। इसी तरह यदि किसी कस्टमर के F&O पोर्टफोलियो की मार्जिन दिन ख़त्म होने पर या EOD में बढ़ जाती है, यहाँ ब्रोकर ने कस्टमर के ट्रेड लेने के पहले सही मार्जिन ली थी ; लेकिन फिर भी इसे अपफ्रंट मार्जिन शॉर्टफॉल माना जायेगा। जब आप ऑप्शंस शॉर्ट करते है तो उसमें फ्यूचर्स की तरह MTM या marked-to-market लॉस जैसा कोई नुकसान नहीं होता है, जिसे अगले दिन दिया जाना पड़े। जब किसी शॉर्ट ऑप्शन पोज़िशन में नुकसान होता है, तो मार्जिन बढ़ जाती है और इसे ना देने पर भी अपफ्रंट मार्जिन पेनॉल्टी लग सकती है।
ऊपर दी गयी स्तिथियों में बहुत सारे ब्रोकर्स कहते है कि उन्होंने कस्टमर के ट्रेड की शुरुवात के पहले ही मार्जिन ले ली थी और मार्केट के उतार चढाव या किसी और कारण से, जो मार्जिन पेनॉल्टी लगेगी उसे अपफ्रंट मार्जिन पेनॉल्टी नहीं बल्कि नॉन- अपफ्रंट मार्जिन पेनॉल्टी के अंदर आना चाहिए, और इस पेनॉल्टी का भुगतान कस्टमर के द्वारा किया जाना चाहिए। जिससे ऐसी स्तिथि में कस्टमर को मार्जिन शॉर्टफॉल की जानकारी हो और शॉर्टफॉल को कवर करने के लिए या तो वह और मार्जिन डालें या अपनी पोज़िशन को क्लोज/स्क्वायर ऑफ कर दें।
लेकिन स्टॉक एक्सचेंजेस ने हाल ही में एक सर्कुलर जारी किया जिसमें कहा गया है कि ऐसी स्तिथियों को अपफ्रंट मार्जिन पेनॉल्टी में लिया जायेगा और ब्रोकर्स उसे कस्टमर को नहीं लगा सकते हैं।अक्टूबर 2021 के बाद से, ब्रोकर्स ने जिनको भी ऐसी अपफ्रंट मार्जिन पेनॉल्टी लगाई है, उसे रिफंड करने की जरुरत है।
ब्रोकर्स और ब्रोकर्स एसोसिएशन SEBI और एक्सचेंजेस के साथ इस मुद्दे चर्चा पर कर रहे हैं कि ऐसे उदाहरण जहाँ ट्रेड लेने के बाद जहाँ मार्केट के उतार-चढाव या किसी और कारण से मार्जिन बढ़ जाती है, उन्हें अपफ्रंट मार्जिन शॉर्टफॉल कैसे माना जा सकता है और ब्रोकर्स को भी ऐसी स्तिथियों में कंप्लायंस का पालन करना असंभव है। इन्हें सिर्फ वही कस्टमर कण्ट्रोल कर सकते हैं जो इन पोज़िशन को होल्ड करते हैं। SEBI ने ऐसे कुछ इश्यूज की पहचान की है और एक नया सर्कुलर जारी किया है जो अगस्त 2022 से लागू हुआ है और इसमें इंट्राडे या दिन के बीच में बढ़ी हुयी मार्जिन पर पीक मार्जिन पेनॉल्टी का कैलकुलेशन नहीं जुड़ेगा। लेकिन, यह सर्कुलर भी ऊपर दिए गए सभी सिनेरियो को कवर नहीं करता है।
रेगुलेशन के नए अपडेट को मानते हुए, Zerodha ने अगस्त 2022 से ट्रेड लेने के बाद लगने वाली अपफ्रंट मार्जिन पेनाल्टीज़ को कस्टमर को लगाना बंद कर दिया है। हम अक्टूबर 2021 के बाद कस्टमर को लगाई हुयी अपफ्रंट मार्जिन पेनाल्टीज़ को कैलकुलेट करके रिफंड कर रहे हैं। यदि आपको ऐसा लगता है कि आपने रिफंड प्राप्त नहीं किया है तो आप यहाँ टिकट बना सकते हैं। सिर्फ अपफ्रंट मार्जिन पेनाल्टीज़ को ही रिफंड किया जायेगा, नॉन-अपफ्रंट मार्जिन को नहीं।
मैं एक ब्रोकरेज फर्म का CEO हूँ और इसलिए मेरा नजरिया एक तरफ झुका हुआ हो सकता है जो यह है कि रेगुलेशंस के अनुसार ब्रोकर्स के अपफ्रंट मार्जिन को लेने के बाद भी हमें इन पेनॉल्टी को वहन करना पड़ रहा है, यह दुर्भायपूर्ण है।हमारे पास ऐसा मैकेनिज्म भी है कि मार्केट में ज्यादा उतार- चढाव होने की स्तिथि में मार्जिन बढ़ने पर मार्जिन शॉर्टफॉल होने पर कस्टमर को अलर्ट किया जाता है। हमारी रिस्क मैनेजमेंट टीम ,एक ऐसा फंक्शन बनाने में काम रही है कि किसी ट्रेड से एग्जिट करने पर यदि उसके लिए मार्जिन बढ़ जाता है तो नई मार्जिन के लिए पर्याप्त फण्ड ना होने पर उस पोज़िशन से एग्जिट होने नहीं मिलेगा। हम इस पर भी काम कर रहे है कि किसी पोज़िशन में मार्जिन बढ़ने के बाद यदि कस्टमर के अकाउंट में फ्री फंड्स नहीं है तो उनकी पोज़िशन को तुरंत स्क्वायर-ऑफ किया जा सके। RMS में बदलाव करना बहुत बड़ी टेक्नोलॉजिकल समस्या है, कस्टमर को बिना पर्याप्त समय दिए उनकी पोज़िशन को स्क्वायर ऑफ के अपने नुकसान है।
सामान्य रूप से, यदि F&O पोर्टफोलियो पर वोलैटिलिटी या ऑप्शन राइटिंग करने के कारण मार्जिन बढ़ जाती है तो उन्हें एडिशनल मार्जिन लाने के लिए T+1 दिन का समय मिलना चाहिए। यह फ्यूचर्स की तरह है, जिसमें MTM नुकसान को पूरा करने के लिए T+1 दिन का समय मिलता है। यदि एग्जिट करते समय मार्जिन बढ़ जाती है, तो उसे नॉन-अपफ्रंट मार्जिन पेनॉल्टी माना जाना चाहिए और रेगुलेशन के अनुसार, इसे कस्टमर के द्वारा दिया जाना चाहिए।
हम आशा करते हैं, इस पोस्ट से आपको यह समझने में मदद मिलेगी कि भारतीय एक्सचेंजेस में लिवरेज का उपयोग करने पर मार्जिन और मार्जिन पेनॉल्टी कैसे काम करती हैं।